सच कहूँ,
तो मैं तुम्हारे,
बुद्धिमता का कायल हूँ,
सहजता, सुन्दरता और स्थिरता,
कैसे सब कुछ है तुममे,
या फिर,
मैं जो देखता हूँ,
भ्रम है,
क्योंकि ?
कुछ त्रुटियाँ भी तो होगी ही,
मुझे क्यूँ नहीं दिखती,
कही ऐसा तो नहीं,
जो चलते है पदचिन्ह छोड़ जाते है,
और तुमने एक कदम भी नहीं बढाया हो,
या फिर मेरी आँखे ही कमजोर हों,
क्योंकि मेरे अल्हर कदमो की,
निशान मिटाते नहीं मिटते,
सायद,
ईस्वर की एक उत्क्रिस्ट कृति हो तुम,
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