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Friday, September 28, 2007

पंकज

किचर से कमल खिला हूँ,
सभ्यता का प्रतिक,
सुन्दरता कोमलता,
साहित्य सृजन का आकार,
प्रकृति का अनमोल उपहार,
कवि कि कृतियों में,
कैनवास के रंगों में,
भ्रमरों के गुंजन में,
परागों के महक में,
पानी के झिलमिल तरंगों में,
खुशी से झूम उठता हूँ,
किचर, सडन, घुटन सब भूल जाता हूँ,
कालचक्र से रौंधे जाने को सहता,
अपनो कि,सबकी अहंग से बचता,
चुप रहता हूँ,
बस !
मूक-बधिर हो,
खुद को समेट लेता हूँ,
तिमिर के राज का आंसू,
नित नूतन प्रभात में,
सप्तवर्णी किरणों सा फूट पड़ता है,
ह्रदय नए राग रचता है,
और सारे दुखों से मुक्त पुनः मैं,
गीत खुशी के गता हूँ,
और पंकज हो जाता हूँ.