मेरी रचनाये बिखर गयी,
ढ़ेर में कहीं खो गयी,
यादों को समेटने की चाह,
समय की नदी में बह गयी,
अब क्या करूँ ?
बहाव में बह जाऊँ,
या फिर पीछे से,
पन्ने कूड़े से ले आऊँ,
नहीं नहीं !
जो छूट गया सो छूट गया,
आने बाला भी
छूटेगा,
क्या करूँगा ?
उन पदचिन्हो का,
जो बंचित करेंगे,
भ्रमित करेंगे,
कतारों में होने को बाध्य करेंगे,
अनजान के रोमांच,
आनंद की मिठास,
मैं नहीं छीनना चाहता,
कुछ देने के भ्रम में,
झूठा उजाला फैलाना नहीं चाहता,
मेरी तो चाह है,
भटको,
स्वयंग को जानो,
बहो बहो बहते जाओ,
अनजाने अंधियारों को चिर,
प्रकाश पुंज में समां जाओ,
फिर समेटने की चाह न होगी,
जलते हुए रहना,
बिखरते हुए रहना ही काफी होगा,