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Friday, October 14, 2011

परिवर्तन मेरा शौख है.....


परिवर्तन मेरा शौख है,
प्रकृति संग मैं रमता हूँ,
गतिशील मैं रहता हूँ,
सीमाओं के बंधन से,
मुक्त सदा मैं रहता हूँ,
कर्तब्यों का पड़ाव मुझे,
नित नया मुकाम देता है,
हवाओं कि तरह,
डाली-डाली, फुल-फुल, फुन्गिओं के ओर-छोर,
दिशाओं में,
जंगल, पर्वत, नदी, सागर,
चहुँ ओर मैं फिरता हूँ,
पानी कि तरह,
पर्वतों से झरता हूँ,
खेत, मैदान, समुन्दर तक,
बादलों संग झूमता हूँ,
जहाँ मन वहीँ होता हूँ,
आसमान से दूर,
चाँद-सितारों संग खेलता हूँ,
रंगों से लिपटता हूँ,
कविताओं से ओत-प्रोत,
सुन्दरता मैं लीन,
कभी साहित्य,
कभी बिज्ञान,
कभी गणित से उलझता हूँ,
विविध कलाओं, बिधाओं-विद्याओं में,
आध्यात्म कि उजालों में,
परछाई रहित हो जाता हूँ,
परिवर्तन मेरा शौख है,
दुख-सुख में चलता रहता हूँ.


क्यों चल पड़ा है, तूँ उसी पुरानी राह.....


क्यों चल पड़ा है,
तूँ उसी पुरानी राह,
जब नित नूतन प्रभात आता है,
नित नूतन सुरभि से सुरभित ये जग,
तूँ खोज नए राह,
कुछ रोमांचित हो,
उठ थोरी और परिश्रम,
तुझे नए गंतब्य तक ले जायेगा,
तूँ गीत ख़ुशी के गायेगा,
और  तूँ हर्षित होगा,
जब आत्मा भी ब्याकुल है,
नए देह धरने को,
तेरा देह भी नित नए आकार लेता है,
फिर क्यों तूँ डरता है,
बस चल पड़,
अनजानी राह,
फूलों की कुसुम वाटिका की ओर,
तूँ स्वयं ही पहुँच जायेगा,
अनजाने ही तूँ नयी रगों को रचेगा,
चिड़ियों के कलरव संग झूमेगा,
जब नदियाँ नहीं रूकती रोड़े से,
अनजाने ही पहुँच जाती सागर की ओर,
तब बार-बार एक ही राह में चल-चल कर,
तूँ कैसे थकता नहीं,
परिधि के एक ही बिंदु पे बार-बार,
-आ कर कुछ तेरे हाथ आता नहीं,
जब तुझे पता है परिवर्तन ही नियम है,
हर छन नया है,
कुछ सहेज नहीं रखना है,
तो बस चल पड़ उसी ओर,
जहाँ तेरा मन जाये,
जहाँ तूँ गाए,
पाकर नयी डगर,
छोर सभी कुछ उसी प्रभु पड़,
बस चलता जा चलता जा,
नहीं कभी तू थकेगा,
सदा आनंद में डूबा रहेगा,
जब लीन बिलीन तूँ प्रकृति में चलेगा,


हे प्रभु.....


हे प्रभु,
क्यूँ मेरे साथ ऐसा होता है,
जो गलती मैंने नहीं की,
उसी की सजा भुगतता हूँ,
जबरन मैं लोगों के अहंग का शिकार होता हूँ,
जबरन बिना कारन द्रौपदी की तरह,
सबके बिच मेरी खिल्ली उड़ाई जाती है,
किसी और के कर्मो की सजा,
मुझे भुगतनी होती है,
जबरन मेरा पोस्टमार्टम होता है,
मेरी टंगे तोड़ कर मरहम लगाये जाते हैं,
और उसी अहसान के बदले,
मैं उसका मूल्य चुकाता हूँ,
मुझे नहीं मालूम,
ये कौन सा न्यूटन का नियम है,
जो जबरन फूटबाल की तरह,
लात और दिवार का मार सहता है,
सहज होने का दंड भुगतता है,
सबके असंतोस की आग मुझे,
जबरन जलाती है,
उनके कुंठाओं के निकक्षेप पे,
खड़ा रहना मेरी मजबूरी बन जाती है,
स्नेह, प्रेम, दया, धर्म ने,
मेरे मुंह को सिल दिया है,
आँखों में आंशु सुखा दिए हैं,
कानो को बहरा बना दिया है,
सच सहजता की बेड़ियों में जकड़ा,
खुद के प्रश्न उत्तर में घिरा,
मौन !
पत्थर सा हो गया हूँ,
जो कभी खून में उबाल थी,
वो आंशुओं के भीतर ही घुटन में बहने से,
निस्तेज सा हो गया हूँ,
कर्ण की तरह किसी और के भूल का,
श्राप ढ़ो रहा हूँ,
सीता की तरह बार-बार अग्नि परीक्षा दे रहा हूँ,
आडम्बरी मर्यादाओं के बिच,
घिस-घिस कर रह गया हूँ,
मेरा क्या दोस है,
मैं आज तक समझ नहीं पाया,
तेरा क्या बिधन है,
ये मैं जन नहीं पाया,
क्या सत्य को हरिश्चंद्र की तरह,
सर्बस्व अर्पण करना ही होता है,
क्या स्वप्न भी अपनी मर्यादा तोड़ता है,
बार-बार उसके सिने में त्रिशूल घोंपता  है,
रोम-रोम मेरा कस्ट से ब्यथित है,
अब ध्यान का भी ज्ञान नहीं,
चहुँ ओर आग की लपटों में,
खुद को भस्म होते देखता हूँ,
ये कैसा तेरा बिधान है,
अब तो कुछ भी सेस बचा नहीं,
फिर क्यूँ घुटने की भी आजादी नहीं,
सांसो को तू मेरी पकड़े,
ये कैसी नाच नचा रहा,
बिना गलती के ये कौन सा दंड तू मुझे दे रहा,


Monday, October 10, 2011

मानव ना बनाना.....


ना जाने कब से,
घुटता आ रहा हूँ,
दिवारों से घिरा,
 आसमान तक जाता मन,
पर !
किलकारियां मैं भर नहीं पाता,
किसी से कुछ कह नहीं पाता,
जी भर रो नहीं पाता,
सभ्य होने के नियमो को झेल नहीं पाता,
मुखौटे मैं लगा नहीं पाता,
झूठ में हंस नहीं पाता,
हाँ में हाँ मिला नहीं पाता,
सच को मैं दबा नहीं पाता,
कछुये सा सिमट कर अब,
अकेला रह गया हूँ मैं,
हे इश्वर,
फिर से मानव ना बनाना,
मानव ही बनाना हो तो,
सतयुग में लाना,
या फिर,
तितली, पंछी, फूल बनाना,
पेड़, नदी, पहाड़ बनाना,
बारिस कि बुलबुले बनाना,
संगीत के स्वर बनाना,
इन्द्रधनुष के रंग बनाना,
पर !
मानव ना बनाना.

पता नहीं मैं !


पता नहीं पहले,
कितना मैं डरती थी.
काक्रोच-गिरगिट-चूहे तक से,
घबराती थी.
अब उन्हें कितनी ही बार,
लैब में चीरते-फारते,
डाक्टर जो बन बैठी.
सम्बेदनाये अब,
कर्तब्य की मर्यादा से बंध गयी.
कस्ट, बेदना, टीस की चुभन सहते-सहते,
कोमल ह्रदय अब,
सहनशीलता की कठोर आबरण से ढक गयी.
क्योंकि अब,
काक्रोच-गिरगिट-चूहे नहीं,
मनाबों को आजमानी थी.
आशाओं की दीप तले,
अर्जुन ने लक्ष्य साधा था.
पर!
मुझे तो निराशाओं,
चीत्कारों, कस्ट, बेदानओंकी टीस में,
आशा की दीप जलानी है.
अब,
ह्रदय, आँखें, कान पत्थर सी होने लगी है.
कहीं मानवता की सेवा में,
इन सबको सहते-सहते,
दानव न बन बैठूं,
या फिर,
शिव की तरह पत्थर न बन जाऊं.
या फिर,
मेरी कोमल ह्रदय,
इन कठोर आबरण को को चीर,
गंगा की तरह प्रवाहित होने लगे,
और मैं सदा,
मानव की कस्ट की जलन को,
शीतल करती रहूँ.