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Tuesday, June 26, 2012

आँखे बातें करती है


आँखे बातें करती है,
एक दूसरे के भीतर भी झांकती है,
फिर भी !
 इन्हे समझना आसान नहीं,
क्योंकि यह,
ह्रदय से मस्तिष्क के बिच,
भीतर के कोलाहल में,
उलझ कर रह जाता है,
मस्तिष्क की हलचल,
मन की बेचैनी,
सपनो की कैनवास पर कुछ लिखती है,
पर कुछ स्पस्ट नहीं होती,
सब कुछ वैसा ही दिखता है,
जो हम देखना चाहते है,
होठों की थरथराहट भी साथ छोड़ देती है,
जब आमने सामने होते है,
बस एक दूसरे को देख,
मुस्का के रह जाते हैं,
गर जो थोड़ी हिम्मत हो,
तो ही कुछ सामने आता है,
वर्ना बस यूँ ही,
एक दूसरे में खोये से रह जातें हैं,  

सच को सच की तरह देख सकती हो

जो दिखता है,
 वो होता है,
मन कहता है,
सोच कहती है,
अध्यन कहती है,
अनुभव कहती है,
पर !
मृगमरीचिका,
इसका उत्तर तो वही दे सकता है,
जिसने तपते रेगिस्तान में,
जलते पावं से,
लू को सहा हो,
प्याश से तड़पा हो,
और,
सच को सच की तरह देखा हो, 
या फिर,
जिसके पास एक और आँख हो,
जो भले ही उसके भीतर हो,
पर उसकी दृष्टि,
सच को सच की तरह देख सकती हो,
  

Monday, June 25, 2012

चलता चला जाता हूँ.....

चलता चला जाता हूँ
नई राह, नई डगर,
पगडंडियों की होर से दूर,
पदचिन्हों की गड्ड-मड्ड से बेखबर,
ना डर है, ना संशय है,
सामना करता हूँ,
चुनौतियों से लड़ता हूँ,
गिरता हूँ, पड़ता हूँ
लहूलुहान होता हूँ,
बस गीत गुनगुनाते,
चलता चला जाता हूँ
नई राह, नई डगर,
नहीं चाहिए बनी बनाई,
सपनो की सतरंगी बुनता हूँ ,
तक़दीर को चुनता हूँ,
निचे धरती ऊपर आसमान,
हवाओं संग झूमता हूँ,
डाली-डाली, फुल-फुल,
झुरमुट के ओर छोड़,
बस गीत गुनगुनाते,
चलता चला जाता हूँ
नई राह, नई डगर,
जीवन की नई रंगे, नई उमंगें,
प्रेरित करती है,
थकता नहीं बस,
करता हूँ प्रयास बार-बार,
दूर तक दिखता छितिज,
हौसला देता है,  
बस गीत गुनगुनाते,
चलता चला जाता हूँ
नई राह, नई डगर,
बस चलता चला जाता हूँ

Saturday, June 23, 2012

और मैं लिखता चला जाता हूँ.....

लिखना चाहता हूँ
कस्ट को,
बेदनाओं को,
मन की ब्याथाओं को,
डरता हूँ,
घबराता हूँ,
कहीं इन्हें पढ़ कर,
स्वंय ही हार न जाऊ,
मन को मार न जाऊ,
फिर !
हँसता है मन,
कहता है,
बचा ही क्या है तेरे पास?
जिसके छिनने का डर है,
जल-जल के जल ही गया है,
तो क्यूँ न?
उस मरते हुए,
तरपते हुए,
सांसों को लड़ते हुए,
को देख के,
टूटे हुए पंख से ही फर्फराए,
और बता दे उस,
ईस्वर को,
जिसने तुझे बनाया है,
की सब माया है,
तुने उसके बनाये केनबास,
को सजाया है,
अपने कस्ट बेदनाओं से,
उसे जिबंत किया है,
अपनी मर्यादाओं से बंध कर,
तुने उसे हंसाया है,  
उसके कृति को सार्थक बनाया है,
फिर !
शब्द स्वं ही खेलते है,
आशाओं की किरणों से बंधते हैं,
और मैं लिखता चला जाता हूँ |