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Saturday, June 23, 2012

और मैं लिखता चला जाता हूँ.....

लिखना चाहता हूँ
कस्ट को,
बेदनाओं को,
मन की ब्याथाओं को,
डरता हूँ,
घबराता हूँ,
कहीं इन्हें पढ़ कर,
स्वंय ही हार न जाऊ,
मन को मार न जाऊ,
फिर !
हँसता है मन,
कहता है,
बचा ही क्या है तेरे पास?
जिसके छिनने का डर है,
जल-जल के जल ही गया है,
तो क्यूँ न?
उस मरते हुए,
तरपते हुए,
सांसों को लड़ते हुए,
को देख के,
टूटे हुए पंख से ही फर्फराए,
और बता दे उस,
ईस्वर को,
जिसने तुझे बनाया है,
की सब माया है,
तुने उसके बनाये केनबास,
को सजाया है,
अपने कस्ट बेदनाओं से,
उसे जिबंत किया है,
अपनी मर्यादाओं से बंध कर,
तुने उसे हंसाया है,  
उसके कृति को सार्थक बनाया है,
फिर !
शब्द स्वं ही खेलते है,
आशाओं की किरणों से बंधते हैं,
और मैं लिखता चला जाता हूँ | 

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