क्या करूँ,
मैं उस ज्ञान का,
जो मुझे नहीं सिखा पाई,
खुद को बेचना,
खुद की कीमत लगाना,
और कौड़ियों के मोल,
ठीक उसी बिना तरासे हीरे की तरह,
जोहरी को मोहताज,
कभी इस हाथ से उस हाथ,
कभी इस पैर की ठोकर,
कभी उस पैर की ठोकर,
बाट जोहता उस छैनी हथौड़ी की,
जो काट छांट कर मेरे अस्तित्व को,
इतना चमकीला बना दे,
की कीमत बढा-बढा कर भी,
लोग गर्व का अनुभव करें,
और बार-बार बोली लगे,
और शोभा सुरक्षा में कैद.....
नहीं ! नहीं !
खुद को बेच क्या हासिल कर पाउँगा,
बिकने को बदलना होगा,
और बदलकर बिक जाऊँगा,
मुझे मेरा अस्तिव ही प्रिय है,
बिकने को निखरना नहीं,
निखरने को जीना है,
मेरे लिए वही ज्ञान सही है,
जो मुझे खुश रहना सिखाती है,