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Saturday, May 24, 2014

बलात उस प्रतिस्पर्धा का हिस्सा हूँ

बलात उस प्रतिस्पर्धा का हिस्सा हूँ,
जिसके नियम मुझे पता नहीं,
जिसके मानदंडों में मेरी हिस्सेदारी नहीं,
जिसमे मैं दौड़ता हूँ,
बिना कुछ जाने,  
और,
जिसका परिणाम,
मेरे दौड़ने से ज्यादा,
आयोजक पर निर्भर करता है,
आरोप-प्रत्यारोप से घिर जाता हूँ,
अबसादो से भर जाता हूँ,
क्योंकि ?
हर बार मैं जित नहीं सकता,
 समय को बांध नहीं सकता,
क्या कहूँ मैं उसको,
जिसने मुझे इसीलिए बनाया है,

क्या कोई उनसे जित सकता है ?

क्या कोई उनसे जित सकता है ?
जो ढीठ है, मक्कार है,
झूठे है, सबल है,
और ह्रदय विहीन है,
‘नहीं’ !!!!!
हर युग में निरीह ही सहते आये है,
फिर ये तो कलयुग है,
जो जित,
सच की कथाओं में हमने सुना है,
कड़ोड़ो सहनशीलो के पस्त होने के बाद,
किसी ‘अवतारी’ ने ही कर दिखाया है,
जो सहजता का प्रतिक तो होता है,
पर कड़ोड़ो सहनशील की प्रार्थना शक्ती उसके साथ होती है,
 अन्यथा सच तो यही है,
समय की विडम्बना है,
की आज जो सबल है,
वही सच्चा है,
और निर्बल झूठ,
जिसे सिर्फ सहना है,
समय की आग में तपना है, 

Tuesday, May 6, 2014

मुझे नहीं शिकायत

मुझे नहीं शिकायत,
 गिला शिकवा औरों से,
ना ही किया नफरत,
अपनो या गैरों से,
पर ये कैसी सजा है मौला,
तेरे लिए,
तुझसे भागता हूँ,
चुप रह कर सहता,
छिपता-छिपाता,
उसूलों के लिए,
उसूलों से मुह फेरे,
आयने में खुद को देखता हूँ,
कमजोर, बेबस,
शिकायतो के ढेर में..... 

बिना शब्दों के

जाना-पहचाना,
रोज-रोज का मिलना-मिलाना,
 अचानक ही,
जब अन्जाना सा,
बनने को मजबूर करता है,
भाबनाओं की आकृतियाँ,
चेहरे पर उभर कर ना आयें,
कित्रिम हंसी,
खुश दिखने का प्रयाश,
अजीव सा लगता है,
खुद को समझाने का प्रयाश,
या फिर एक संकेत,
की फर्क नहीं अनजानेपन का,
एक द्वन्द,
जो जीवित हो उठता है,
जब अतीत बार-बार सामने आता है,
मुस्कुराते हुए अलहर्ता से,
बेफिक्र बेपरवाह होने को कहता है,
पर ! स्मृतियाँ कहाँ मानती,
ह्रदय में उतर कर,
प्रवाहित करती है रागों को,  
प्रकम्पित शरीर,
स्वांशों का उछावाश,
प्रतिविम्बित कर ही देता है,
बिना शब्दों के भी,
भीतर का सच कह ही देता है, 

मुझे गर्व है खुद पे

मुझे गर्व है खुद पे,
जब अपनी ही नजरो में,
और आयने में,
खुद को देखता हूँ,
और पाता हूँ,
चुपचाप चन्दन की तरह घिसता,
फिर भी खुसबू बिखेरता,
सहने का अदम्य शाहस,
मान-अपमान से रहित,
आरोप-प्रत्यारोप से दूर,
खुद को अडिग,
सहज-स्वक्ष,
अल्हर,
कृत्रिमता से परे,
प्रकृति में लीन,
दुख और अबसादो में भी ढूढ़ लेता,
ईश्वर का आलोक,
रंग-ताल-लय-छंद-तरंगित,
सुमधुर जीवन को,
प्रयासरत आजीवन, 
अपना ही सच्चा प्रयास,
सचमुच अच्छा लगता है,
और खुद पे गर्व होता है, 

किश्मत से आगे

किश्मत से आगे,
निकलने की जी-तोड़ थी,
कल्पना था,
उर्जा था,
विश्वाश था,
संकल्प था,
पर !
नहीं था पता,
समय की गर्म लू,
झुलसाती है,
सपनो को,
पस्त करति है,
हौसलों को,   
विवश करती है,
मूक होने को,
पर !,
मैं भी तो एक रचना हूँ,
ईश्वर का स्वरुप हूँ,
स्वांश गिन के लिखी विधाता ने,
और
प्रयास करना सिखाया जिन्दगी ने,
किश्मत से आगे निकलने की,
अब कोई होड़ नहीं,
हार और जित का कोई मतलब नहीं,
पर !
“मौन” शांति की नीरवता,
बौद्धत्व का आलौक,
कुछ और नहीं,
किश्मत से आगे की  ही तो राह है,

तुमसे प्रेम है

अच्छा लगता है,
की तुमसे प्रेम है,
ये जानते हुए,
की तुम्हे मुझसे प्रेम नहीं,
बिनिमय-अपेक्षा से रहित,
सहज स्वक्ष प्रेम,
किसी प्रश्न-उत्तर से परे,
बस प्रेम है,
मिलने-बिछड़ने,
पास-दूर,
एक दुसरे में होने,
एक दुसरे में खोने,
परस्पर-तुलनात्मक,
निर्भरता-बिस्वस्नियता,
प्रतिबधता,
प्रपंचो से मुक्त,
बस प्रेम है,
मैं निर्झर झरना,
संगीत से लयबद्ध,
देखता हूँ तुम्हे,
दिन के उजाले में,
रात की चांदनी में,
फूलों की खुसबू में,
आस-पास, बहार-भीतर,
ध्यान में,
बस प्रेम है,
मुस्कुराता हूँ,
जब तुममे उस ईश्वर को देखता हूँ,
जिसे मैं प्रेम करता हूँ,
और जो मुझे प्रेम करता है,
मैं भी मौन हूँ,
और वो भी मौन है,
बस प्रेम है,
जो उसमे है,
जो मुझमे है,
अच्छा लगता है,
की तुमसे प्रेम है,