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Thursday, March 14, 2013

क्या ये सच है ?

क्या ये सच है?
की आज सच,
अपने ही वजूद “सच”,
को बचाने अंधियारे में,
परछाई रहित,
प्रकश से भागती,
झूठ की आर में,
अपने “सच” को छुपाती,
घुटती सिसकती,
वाट जोह रही है कि
कभी तो उजाला होगा,

विडंबना

कुदरत की विडंबनाओ को,
कैसे व्यक्त करूँ ?
कैसे लिखू जो अजीब है ?
समय की समय में,
बनती-बिगरती पगडंडियाँ,  
और होने बाली घटनाएँ,
जिसे ना कहा जा सकता है,
ना समझा जा सकता है,
बस !
सिर्फ महसूस होता है,
ये इतिहास की पन्नो में नहीं,
दैनिक जीबन में ही दिखता है,
और हर एक के साथ ही,
बारिश के बुलबुले की तरह,
कुछ ही समय में समाप्त हो जाता है,
किश्मत की विडम्ब्नाएँ,
उसे बनाने बाला ही जाने,
क्योंकि ?
ज्ञान विज्ञान जहाँ ख़त्म हो जाता है,
बुद्धि भी जहाँ भ्रमित हो जाती है,
वहाँ बस उस मायावी अनंत,
पर ध्यान स्थिर हो जाता है,
और ये भी एक विडंबना ही है,

Friday, March 8, 2013

जब बिचारो में कोई विभेद ना हो

मेरा लिखना कहीं आपको,
भ्रमित तो नहीं करता,
वैसे ही जैसे,
 दर्पण में प्रतिविम्ब,
स्वयं आप अपने ही,
दायें और बाएं में भेद,
नहीं कर पाते,
सापेक्ष के सापेक्ष,
ठहर नहीं पाते,
और निश्कर्ष!
वही होता है,
जो आप देखना चाहते है,
और,
मेरे और आपके बिच की दुरी,
दर्पण और आपके बिच,
की दुरी की तरह,
सदैब बनी रहती है,
और,
हम एक ही विन्दु नहीं देख पते,
  आप देखते-समझते कुछ और है,
 और
होता कुछ और है,
भ्रम का ना होना,
तभी संभव है,
जब बिचारो में कोई विभेद ना हो,
और,
शव्दों का भाव प्रतिविम्ब ना बनता हो,

Thursday, March 7, 2013

मानवता की परख

आग में तपकर ही,
स्वर्ण चमकता है,
और यही उसकी प्रमाणिकता है,
मानव की मानवता की परख,
उसके ज्ञान भरी बातों में नहीं,
बल्कि सहज आचरण से होती है,
सहज होना,
और आग में तपना,
कड़े मानदण्ड की वही रेखा है,
जिसे लक्षमन ने कभी खिंचा था,
और साधू बना रावन उसे पार न कर पाया,
उसकी ज्ञान भरी बातों में आकर,
सीता ने जो भूल की,
वैसा कभी ना करना,
छलने बैठे है रावन यहाँ,
साधू का भेष बनाकर,
कछुवे सा सिमटे रहना,
सीमा पार कभी न करना,  
सीमा पार कभी न करना,