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Tuesday, November 26, 2013

सच और झूठ

समय के परिपेक्ष,
सच और झूठ,
एक माया है,
एक अंत हिन् यात्रा,
अनंत तक,
अपवादों और विडम्बनाओं,
संभावनाओं का रंग/रंग-मंच,
रोमांचित करता है,
थकाता है,
और कहता है,  
सच और झूठ,
सच और झूठ है,
आयामों से देखने की कोसिस,  
सार्थक /निरर्थक है,
क्योंकि ?

सिर्फ निर्माता ही ये जनता है,

Saturday, November 23, 2013

समय की चक्रव्यूह में फंसा

समय की चक्रव्यूह में फंसा,
कब से आहत पड़ा,
छटपटाता व्याकुल खड़ा,
दिग्भ्रमित, निराश,
उर्जा अब शेष नहीं प्रयास करने को,
स्वांश मेरे बस में नहीं रोक लेने को,
देखता हूँ इन्ही आँखों से,
कर्म फल की सापेक्ष प्रथाएं,
सुनता हूँ इन्ही कानो से,
समय की अपबादों की कथाएं,
समय की आग में तपते-तपते,
ईश्वर की स्तुति ही शेष है,
सहजता सहनशीलता धैर्य ही,
अब बचा मेरे पास है,
आगे की सुध नहीं,
बीते को मैं खो चूका,
भार ढोने को कुछ नहीं,
सब कुछ मैं भूल चूका,
बर्तमान की धुल को ही,
सर का ताज बनाऊंगा,
स्वप्न मेरे पास अभी तक,
एक दिन सच कर दिखलाऊंगा,  

Monday, July 15, 2013

वैवाहिक समुद्र मंथन सदा चलती रहती है.....

पता नहीं क्यों ?
मुझे विवाह,  
समुद्र मंथन सा लगता है,
जब विचारो के बड़े अंतर,
के वावजूद किसी कारन बस,
संबंध बनते है,
तो लगभग वैसा ही होता है,
एक तरफ सहजता-नम्रता,
एक तरफ क्रोध-अहंकार,
एक तरफ समर्पण,
एक तरफ शोषण,
एक तरफ सच,
और एक तरफ झूठ,
और विडम्बना है,
क्रोध और अहंकार,
 अपने ही अग्नि में जलते है,
झुलसते चले जाते है,
और सहजता-नम्रता,
अपने स्वक्ष निर्मल जल से,
 पल्लवित होते है,
कमल सा खिलते है,
किसी को विष पान भी करना पड़ता है,
शिव सा होना पड़ता है,
कोई छल से अमृत की कोसिस में,
रहू-केतू सा समय का श्राप ढोता है,
किसी को शेष नाग, मन्दराचल, कच्छप सा,
तटस्त रहकर धर्म की रक्षा करनी होती है,
और वैवाहिक समुद्र मंथन सदा चलती रहती है,  

Monday, July 1, 2013

धरती को चक्रों में बुद्ध बनाना है

मैंने जान लिया है,
जीवन को,
इस जगत को,
इस कण को,
ब्रह्माण्ड को,
हाड़-मांस के कर्म को,
इस धरती को,
इस आकाश को,
क्या है सब ?
सब सापेक्ष है,
एक दुसरे के पूरक है,
बस एक ही उत्तर मेरे पास है,
जो इन सबका उत्तर है,
आकाश बरसता है,
धरती भींगती है,
धरती उर्वर हो,
बौद्धत्व जनती है,
सारे आकाश को आलोक लौटती है,
सूर्य चन्द्र तारो का ऋण चुकाती है,
जगत से जीवन का निर्माण है,
जीवन का जगत में अवसान है,
हाड़-मांस का कर्म में,
और कर्म का हाड़-मांस में,
इस कण में,
इस ब्रह्माण्ड में,
यही चक्र विध्यमान है,
मैंने जान लिया है सब,
मैं कौन हूँ ?
मेरा प्रयोजन क्या है ?
प्रयोजन में मैं क्या कहाँ हूँ ?
क्योंकि ?
आकाश को वरसना है,
सूरज को चमकना है,
तारो को टिमटिमाना है,
धरती को चक्रों में बुद्ध बनाना है,
स्पष्ट है,
मैं जीवन हूँ,
मृत्यु मेरी परछाई है,
मैं परछाई में समता हूँ,
पुनः प्रकट हो,
परछाई बनता हूँ,
क्योंकि ?
मैं,
काल-चक्र का हिस्सा हूँ,
और काल-चक्र मेरा हिस्सा,
क्योंकि ?
मेरे अस्तित्व में निहित है,
इसलिए दोनो साथ चलते है,
क्योंकि ?
दोनो एक दुसरे के पूरक है,

श्रद्धा के पात्र

अचंभित हूँ,
 मूर्ति,
तुम्हे देख कर,
कितनी ही मार सही है तुमने,
छैनी और हथोरियों की,
फिर भी मुस्कुरा रहे हो,
और लोग बाध्य होते है,
तुम्हें नमन करने को,
श्रद्धा से झुक जाते है,
पर !
मैंने ऐसा कभी नहीं सुना,
की तुमने किसी को भी कहा हो,
प्रणाम करने को,
 फिर भी लोग तुम्हे पूजते हैं,
पत्थर हो फिर भी,
तुम इस्वर समझे जाते हो,
अजीब है,
जो जिबित है,
उनमे से कुछ,
 ठीक उल्टी आशा रखते है,
श्रद्धा के पात्र हुए बिना,
बिना सहजता त्याग बिना,
 इसी चाह में जीते है,
और कुछ बचे हुए,
इतने सहज होते है,
की उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं होती,
वे बस आशीर्वाद देना जानते हैं,
और बिना कहे ही किसी के,
श्रद्धा के पात्र हो जाते है,
और कुछ ऐसे भी अकल के पत्थर होते है,
जो शीश नवाकर,
आशीर्वाद लेना नहीं,
ओरों के शीश पे पैर रखकर,
इतराते रहते है,
 मुझे एक बात समझ नहीं आती,
क्या श्रद्धा के पात्र होने को,
मौन सहज शांत होना जरूरी है ?

एक दुसरे की कमी को सहना

सम्बन्धो के खटास को,
फुफूद बनने से पहले,
धो ले अन्यथा अगर,
इसने बीमारी का रूप ले लिया,
तो फिर महामारी में परिणत होगा,
और इसकी कोई दबा ना होगी,
और महामारिया किसी एक को नहीं,
आबादी को समाज को नस्ट करती है,
हर बीमारी की तरह,
सम्बन्धो में खटास भी,
मानसिक संकीर्णता और,
ओछेपन से ही आती है,
जब एक दुसरे पर किचर उछाली जाती है,
इसी से फुफूद का जन्म होता है,
और जैसा की हम जानते है,
परहेज ही निबारन है,
एक दूसरे को क्षमा करना,
एक दुसरे की कमी को सहना,
स्वस्थ्य सम्बन्ध बनता है,
स्वस्थ्य सम्बन्ध ही स्वस्थ्य समाज,
और स्वस्थ्य समाज ही,
स्वस्थ्य राष्ट्र का निर्माण करता है,

Thursday, June 27, 2013

सिर्फ प्रायस करना सिखाएं

एक मिथक,
जो भयानक है,
माता-पिता और बरे गुरुजन,
यही बताते,
यही सिखाते,
कुछभी संभव है,
कठिन परिश्रम,
लगन समर्पण,
सम्पूर्ण प्रयास से,
जो चाहो गे वो पाओगे,
कच्ची उम्र की लम्बी उड़ाने,
बढ़ती उम्र में रेंगने को मजबूर हो जाती है,
एक सतत प्रयास और,
समय के साथ आने बालि चुनौतियाँ,
तोरने लगती है हौसले,
थक कर पस्त हो जाते है हम,
और
शुरू होती है एक ऐसी कहानी,
जिसमें दुःख की अँधेरी कोठरी,
असफलता का दर्द,
निरासा का अबसाद,
परिणाम में मिलता है,
और हम कोसते है,
अपने आपको,
अपने भाग्य को,
अपने कमियों को,
और लोगों का ताना,
हमारी जिन्दगी का हिस्सा हो जाती है,
जो कुछ थोरे लोग,
कुछ ऊपर उठ जाते है,
वे भी ब्यस्त जीबन के मार को सह नहीं पाते,
और कित्रिम मुस्कूराहट लिए,
नोटों से हंसी खरीदने दरबदर भटकतें है,
कोई जान न ले सच भीतर झांक कर,
इसलिए सभ्यता की स्वांग में,
निश्चलताको को अपने पैरो तलों कुचल देते है,
सच तो यही है,
सफलता की परिभाषा अलग-अलग होती है,
हम कुछभी नहीं पा सकते,
हम कुछभी नहीं कर सकते,
जोकरते है वोपातें हैं,
और हम अपनी बनाबट,
समय-स्थान-परिस्थितियों से घिरे होते है,
फुल पौधे जिव जंतुओं की तरह हम भी,
सीमाओ से बंधे है,
और ये ही सच है की हम,
सिर्फ प्रयास करने को स्वतंत्र है,
फलपाने को नहीं,
ये समय की गर्भ में कुछभी हो सकता है,
ऐसा समझ लेने मात्र से,
हम कभी थकते नहीं,
कभी टूटते नहीं,
और लगातार बार बार,
प्रयास करते है,
बिना किसी निरासा के,
बिना किसी अबसाद के,
बस चलते चले जाते है,
कुछ मिले या ना मिले,
खुशियाँ कदमो तले पुष्प बिखेरती जाती हैं,
इसलिए मेरी एक विनती है,
माता-पिता और बरे गुरुजन से,
वे सच कहें अपने बच्चों से,
झूठी बुनियांदो से बने घरोंदे के टूटने से,
बच्चे टूट ना जाये,
ध्यान रक्खें इसका की,
वे सिर्फ प्रयास करना सिखाएं,
और
सच के कदमो से सहते हुए चलना,