जब राष्ट्र का बोध,
पेट की आग से झुलस गया हो,
हर घर, हर जन, हर मन,
स्वार्थ लिप्सा को बाध्य हो,
स्वास्थ्य से कमजोर कायर,
डरा हुआ घबराया हो,
अशांत मन का अविश्वास,
भीड़ चाल में व्यस्त हो,
झूठ की बुनियाद,
रेतमहल का स्वप्न,
व्यक्ति-वयक्ति के बिच दरार हो,
कैसे होगी शांति खुशहाली,
जब संस्कृति ही लहूलुहान हो,
दूषित अन्न जल भू वायु,
मन में घृणा और क्रोध हो,
आगे बढ़ने की होड़ हो,
स्वजनों का कोई बोध न हो,
कहाँ निकल गए हम,
कंक्रीटों में फँस गए हम,
कुटिल तंत्र की यन्त्र है हम,
मानवता से दूर कहीं,
हृदयविहीन कंटक वन में,
उलझ -उलझ कर रह गए,
ये अनसुलझी पहेली कैसी ?
जीने की कला ही भूल गए,
क्या खोये क्या पाए,
घुटन जीवन का लक्ष्य नहीं,
घृणित जीवन का कोई मूल्य नहीं,
जो थोड़ी बुद्धि शेष बची हो,
जो थोड़ी सी आशा हो,
जो थोड़ी सी हिम्मत हो,
जो थोड़ा सा साहस हो,
छोड़ो औरो से रण-द्वन्द,
करो स्वयं से यह प्रण,
जो होगा भीतर ही होगा,
क्रोध घृणा की ज्वाला में भी,
प्रेम कमल खिला रहेगा,
सत्य-स्वच्छ-निरमल हृदय में,
विकारो का कोई स्थान न होगा,
मुझसे ही मेरा घर है,
मेरा राष्ट्र है,
मेरी मानवता है,
मैं कमल,
मेरा राष्ट्र कमल,
मेरी पूरी मानवता कमल,
मेरी मुक्ति,
मेरे राष्ट्र की मुक्ति,
मैं शांत मेरे राष्ट्र की शांति,
मेरा उद्योग मेरे राष्ट्र की उन्नति,
मैं खुश, मेरा परिवार खुश,
मेरा राष्ट्र खुश, मेरी मानवता खुशहाल,
हर घर, हर जन, हर मन,
स्वस्थ्य सुन्दर संपन्न सौभाग्य,
उजाला ही उजाला है,
मेरा जीवन सजने वाला है,
जन जन मानवता का गीत गाने वाला है,