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Wednesday, October 1, 2014

रक्षाबंधन

अरसे बाद,
ईस बार,
रक्षाबंधन में,
एक बात समझ आई,
कि बहन तुम “स्त्री” हो,
कल तक मेरे आँगन में थी,
पिता-माता-भाई-बहन के साथ थी,
और तुम्हारी रक्षा का दाईत्व,
पिता से मेरे कंधे पे थी,
तुम्हारे अल्हर्पण को,
हमें सहना था,
क्योंकि ?
इसी से घर सजता था,
तुम स्वतंत्र गौरैया सी,
इधर-उधर फुदकती थी,
तुम्हारे मुक्त-उन्मुक्त गान ने,
कभी तुम्हे “स्त्री” होने का,
एहसास नहीं दिया होगा,
पर जबकि अब,
तुम एक मजबूत सुरक्षा घेरे में हो,
तो सायद तुम्हे,
“स्त्री” होने का एहसास हुआ होगा,
 क्योंकि ?
तुम्हारे पिता और भाई ने,
मूल्य चुकाए नहीं सो अब,
“रक्षाबंधन” के अधिकार पाए नहीं,
वैसे भी कमजोर और लाचार,
इससे बंचित ही होते है,
और एक कमाल की बात,
हमने ही तो किसी और को,
तुम्हारे सुरक्षा के अधिकार दिए है.....
कुछ तो अजीब है,
“हर बरस”,
तुमने “मेरे हाथ” में धागे बांधे थे,
मैंने सपथ लिया था तुम्हारी रक्षा का,
पर!
उस दिन ये सपथ टूट सा गया जब,
“एक बार”,
किसी ने “तुम्हारे गले” में धागा बांधा,
और तुम्हारा अतीत तुम से छीन गया,
ये सिर्फ एक संयोग है या फिर,
तुम्हारे निर्भर होने का दंड ?
जो किसी न किसी रूप में,
तुम्हे “स्त्री” होने का एहसास दिलाएगा,
यह एक प्रश्न है,
की तुम ही सिर्फ “स्त्री” हो या
फिर समस्त सृष्टी की स्त्रिया “स्त्री” हैं,
जिन्हें “रक्षाबंधन” की जरूरत है..... 

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