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Tuesday, May 6, 2014

किश्मत से आगे

किश्मत से आगे,
निकलने की जी-तोड़ थी,
कल्पना था,
उर्जा था,
विश्वाश था,
संकल्प था,
पर !
नहीं था पता,
समय की गर्म लू,
झुलसाती है,
सपनो को,
पस्त करति है,
हौसलों को,   
विवश करती है,
मूक होने को,
पर !,
मैं भी तो एक रचना हूँ,
ईश्वर का स्वरुप हूँ,
स्वांश गिन के लिखी विधाता ने,
और
प्रयास करना सिखाया जिन्दगी ने,
किश्मत से आगे निकलने की,
अब कोई होड़ नहीं,
हार और जित का कोई मतलब नहीं,
पर !
“मौन” शांति की नीरवता,
बौद्धत्व का आलौक,
कुछ और नहीं,
किश्मत से आगे की  ही तो राह है,