ईच्छाओं से बंचित,
जीने की आदत सी हो गई है,
अपेक्षाएं अतिश्योक्ति तो नहीं,
पर !
नैसर्गिक,
स्वच्छन्दता-स्वतंत्रता,
सभ्यता की दीबारों में कैद,
स्वच्छ हँसी-अल्हर्ता भोलापन,
घुट-घुट कर दम तोड़ रहा,
ईच्छाओं से दिशाओं में,
यायावारी !
भी छीन लिया गया है,
परमिट की थूक चाटने को मजबूर,
सीमाओं में बंटी धरती,
सभ्यता से बलात्कारित,
पीड़ित रोती-बिलखती अन्व्याही माँ की तरह,
बच्चे को आँचर से ढांक भी नहीं सकती,
नियमो की चाबुक,
ह्रदय को छलनी करता है,
बलात सभ्य होने को कहता है,
मुझे तो सभ्यता-बर्बरता एक ही लगता है,
जो मुझे गोरैये की तरह,
फुदकने से रोकता है,
कोयल की तरह गाने नहीं देता,
मोर सा नाचने नहीं देता,
बसंती हवा का झोंका नहीं बनने देता,
खरीद-फरोक्त में सिमटकर,
“नोट-रूपये” पे,
जीने को मजबूर करता है,
मैं बलात सभ्यता का दास बनाया गया हूँ,
मुझे पता है,
कड़ोड़ो लोग बिना सभ्यता के,
एक साथ रह नहीं सकते,
और नियम अंततः,
सभी को दासत्व का अहसास दिलाएगा ही,
1 comment:
Very Nice Poem
Read More
Post a Comment