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Thursday, February 6, 2014

दुनियाबी तौर तरिके

दूर आसमान में दिखा,
खुबसूरत सा चमकीला गोला,
और पाने की चाह हुई,
हिम्मत हौसले ने पस्त किया,
फिर भी पंख लगा उड़ चला,
जल्द ही पंख जलने लगा,
और मैं जमीं पे गिड़ा,
दिन से रात हुई,
कुछ दिन और बित गया,
रात के अंधियारे को,
उजलाता सुन्दर सा गोला,
फिर चाहत ने उसकाया,
और मैंने उड़ान भरा,
दुरी ने इतना थकाया,
थक कर मैं चूर हुआ,
वापस होने को मजबूर हुआ,
हाथ नहीं कुछ आया पर,
अब भी नीराश नहीं था मैं,
कुछ दिन ही बीते थे,
सहसा चमकता गोला कुछ दूर,
खो सा गया और चल पड़ा छूने,
जल्द ही पानी की लहरे,
भ्रम टुटा गोला छूटा,
कोई बात नहीं,
खुद को समझाया,
चलता चला जा रहा था मैं,
एक दिन एक दुकान में,
दिख गया कुछ वैसी ही चीज,
कीमत नहीं चुका पाया,
सो मायूस था इस बार भी,
अब तक थोडा थक सा गया था,
कल्पना में खो सा गया था,
हाथो में खुबसूरत वही गोला,
रोमांच ने सहसा आँख खोला,
सपना था वो सच नहीं,
पर जहाँ चाह है राह वहीँ,
खुद से ही तरासने को ठानी,
वही चमक अदभुत बनआई,
ख़ुशी की कोई सीमा न थी,
लोग भी खुश हुए,
उन्हें भी चाहत हुई,
कुछ ने खरीदना चाहा,
कुछ ने डराना,
कुछ ने छल,
अब जा के मुझे कुछ पता चला था,
समर्थ-समृधि साथ चलते है,
और सहजता अकेला,
या तो दुनियाबी तौर तरिके,
या फिर ध्यान और ज्ञान,   



[यह कविता विज्ञान, तकीनीकी और प्रौधोगिकी का बानिजियिक और मानव मनोविज्ञान, सभ्यता और बौद्धिकता के संबंधो को दर्शाता है]

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