क्योँ जाऊँ उजाले की ओर ,
जबकि मैं जानता हूँ
हर छण संघर्ष है अँधेरे से
अनगिनत कष्ट विघ्न बाधाएं
बिना विश्राम लड़ते रहना है ,
और फिर उजाला पा भी लिया ,
या कुछ ऊपर पहुँच ही गया ,
तो क्या होगा ,
तब तक शरीर साथ छोड़ देगा,
इतिहास के पन्ने में
अंकित होने मिटने के सिबा मेरा क्या उपयोग
और कुछ लोग मेरी निर्मलता-साधना को उत्पाद बना
ठगेंगे उन गरीब निरीह
भाभुक लोगों को
जिन्हे उजाले से सदैब उम्मीद रहती है
क्या मैं किसी को छलने का माध्यम बनूँगा
किसी के प्रपंच का अस्त्र होऊ
जिससे सदैब मानवता आहत होती रही है
इससे तो अच्छा है
ना लड़ूँ ना संघर्ष करू
अँधेरे को अपना लूँ
कोई नश्वर निशान क्यों छोड़ जाना
जिसका उपयोग मैं नियंत्रित ही नहीं कर सकता
और अँधेरे में बुराई ही क्या है
सृष्टि का हिस्सा है
स्थिर वर्तुल कुछ होता नहीं
परिवर्तनशील है सब कुछ
अँधेरा उजाला चक्र तो नियति है
तो क्यों ना खो जाऊ अँधेरे में …..
1 comment:
Nice poem Pankaj
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