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Saturday, January 10, 2015

मैंने छोड़ दिया है खुद को

मैंने छोड़ दिया है खुद को,
गर्मियों में उस उड़ते हुए,
रुई के गोल फाहे सा,
जो यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ,
सुन्दर दिखता है,
महत्वपूर्ण लगता है,
बच्चे भागते है उसके पीछे,
हाथों पे ले खूबसूरती से,
देखतें है निहारतें है,
और थोड़ी सी चुक से,
खो देतें है उसे,
उसका स्वरुप बदल देते है,
कुछ ऐसा ही लगता है,
महसुस होता है,
जब मेरा खुद को महत्वहीन समझना,
खुद को औरो के अनुसार,
उनकी ईक्षाओं पे समर्पित करना,
कोशिश करना,
उस रुई के फाहे सा,
उनके फूंक पे उड़ना,
अच्छा लगता है,
उन्हें खिलखिलाते हुए,
हँसते हुए देखना,
और ये भी महसुस करना,
अनोखा ही लगता है,
कि वे कैसे खिल्ली उड़ाते है,
मजाक बनाते है,
बुद्धू समझते है,
उनका अचंभित चेहरा,
कौतुहल प्रश्नचिन्हित मुस्कान,
कि कैसे कोई इतना महत्वहीन हो सकता है,
फिर संवेदना से,
से ये बताने की कोशिश,
कि खुद को महत्वपूर्ण बनाना,
कितना महत्वपूर्ण है,
कि वे सचमुच आहत है,
कि कोई मुझे बुद्धू समझे,
वे दिल से चाहते है,
कि मेरी सहजता की कद्र हो,
उन्हें भी है,
उनका स्नेह फिर इतना बरसता है,
कि मैं उनके स्नेह में डूब जाता हूँ,
फिर महत्वपूर्ण होना नहीं होना,
कहाँ याद रहता है,
उनका मेरे पे हँसना,
हँसते हुए उन्हें देख,
मेरा उन पर हँसना,
 अद्भुत ही है,
अद्भुत ही है,
उस स्नेह को पाना,
जो शर्तो-अपेक्षाओं से रहित हो,
अहंग की परिधियों में सहज समाना,
ह्रदय के भीतर स्थान बनाना,  
रुई के फाहे सा,
खुद को को पूरा-पूरा छोड़ना,

7 comments:

sonia said...

beautiful:)

Ayan said...

Awesome

Unknown said...

Sundar

Unknown said...

Sundar

अनुभूति की अनुगूँज said...

Beautiful metaphor ! रुई के फाहे सा खुद को छोड़ देना !

अनुभूति की अनुगूँज said...

Beautiful metaphor ! रुई के फाहे सा खुद को छोड़ देना !

Shubh Mandwale said...

Very Nice Poem
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