अहँकार एक खंजर है,
जिसकी दोनो धार,
जिद्द और क्रोध,
व्यथित करता है,
खुद को भी,
औरो को भी,
जिद्द से खुद को मारता है,
खुद को ही छलनी करता है,
और,
क्रोध से औरो को जलाता है,
अहँकार का बिकराल खंजर,
खुद के आँखों का आंशु ही नहीं,
रोशनी भी छीन लेता है,
विवेक को ऐसा मारता है की,
औरो की हानि में लगा,
अपना सब कुछ खोता चला जाता है,
बस्ताब में ये ही एक ऐसा खंजर है,
जो खुद को ही क़त्ल करता है,
क्योंकि इससे औरो का,
क़त्ल होता हुआ प्रतीत तो होता है,
पर होता नहीं,
1 comment:
Very Nice Poem
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