मेरे कहे हुए शब्द
कई बार मुझे ही,
समझ नहीं आते,
अन्तराल पर,
अपने अर्थ खो देते है,
अपना स्वरुप बदल लेते है,
और फिर जो सुनते है,
वे भी अपना ही अर्थ लगाते है,
कानो से होते हुए,
जब पुनः मेरे पास आता है,
मैं मेरे शब्दों को पहचान ही नहीं पाता,
अर्थो का यूँ रूप बदलना,
सापेक्षता का तिलस्म,
मैं तो परेसान हो गया हूँ,
कैसे कहूँ जो कहना है,
कैसे समझाऊँ जो समझाना है,
एक बात तो स्पस्ट है,
मुझे भी नहीं मालूम,
अब मुझे क्या कहना है ?
कैसे मालूम होगा?
ह्रदय और मष्तिस्क,
सोचता है कुछ और,
महशुश करता है कुछ और,
मुँह कहता है कुछ और ही,
कान तक पहुँचते-पहुँचते,
कुछ और ही हो जाता है
1 comment:
Very Nice Poem
Read More
Post a Comment