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Saturday, December 22, 2012

या रण करो या ध्यान का प्रण करो.....


क्या अब मेरा समाज ?
मेरी चीख पे ही जागेगा,
मेरी अस्मिता लुटने के बाद ही,
फिर से महाभारत लिखी जाएगी,
क्या वो काफी नहीं?
हमें झकझोरने को,
की हर दिन ही,
मेरा चीर हरण होता है,
तमाशा बना के,
भिड़ जूटा के,
रोस और आक्रोस,
ये नारेब़ाजिया,
और फिर से इंतजार,
एक और बहाने का,
फिर से रोड पर उतर कर आनेका,
मुझे तुम्हारी हमदर्दी झूठी लगती है,
नहीं तो अब तक तुमने जल दिया होता,
सारे बुराईयोंको  और खुद को भी,
क्योंकि?
तुम भी उन्ही में से एक हो,
क्योंकि मुझे पता है,
तुम्हारी रूह कांपती नहीं,
अगर ह्रदय के भीतर आघात होता,
तो तुम जरूर प्रतिकार करते निष्ठा से,
खुद से ही लड़ते पहले,
फिर घर को, फिर समाज को,
बदल देते अनजाने में ही,
तुम्हे दिल्ली में ही  नहीं,
अपने घर के पास,
आस पास भी देखना है,
नजर आयेंगे वो सब,
जिनकी नजर गन्दी है,
और एक महाभारत,
फिर से नए समाज को रचेगा,
जो  स्वच्छ  होगा,
या रण करो या ध्यान का प्रण करो,
या यूँ ही शर्मिंदगी सहो…..

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