हे कृष्ण,
तुमने तो क्षमा किया सौ बार,
फिर किया एक प्रहार,
और कर दिया अंत,
मैं क्या करूँ ?
न तो सहने की छमता है,
न लड़ने की हिम्मत,
न छमा का सामर्थ्य,
न तो मेरे पास चक्र है,
न ही माया,
फिर कैसे इस कलियुग में,
लरु अधर्म से,
एक बात समझ नहीं आयी,
क्यों आना पड़ता है
तुमको बारम्बार,
अपने ही इस सृजन में,
अधर्म की नाश को,
धर्म-अधर्म तुमने ही तो बनाये
है.
क्यों तुम्हारी एक आम कृति मैं
इतना लाचार बेबस हूँ,
क्यों तुम मेरे जैसे
अनंत के क्रंदन पे ही आते हो ?
क्यों इतना समय लगाते हो ?
क्यों तुम ऐसी सृष्टि रचते हो ?
जहाँ मन कुछ और कहता है,
करना कुछ और पड़ता है,
दिखता कुछ है,
होता कुछ है,
समझ कुछ और है,
पेट की आग इक्षाओं की प्यास,
सब कुछ लील लेता है,
स्वर्ग और नर्क हर छण ,
अनंत रूपों में दिखता है,
नहीं दिखता तो
समय के गति के विरुद्ध,
अवरुद्ध ठहर टिके रहना,
अपरिवर्तित हो,
वैभव-संपन्न समय के संग चलना ,
क्या ये इतना कठिन है ?
क्या उनमे मुझमे तुममे भेद है ?
क्या ये प्रारब्ध है
जो तुमने तय किया है
मेरे लिए, उनके लिए, तुमने अपने लिए ,
कैसे छोड़ दूँ ?
सब पाने की लालसा
जानता हूँ संभव नहीं ,
और छोड़ भी दूँ तो क्या ?
मेरे लिए तो सच यही है,
कि तुम ही सब कर सकते हो,
क्योंकि चक्र और माया तुम्हारे पास है,
जिसे मैंने नहीं देखा,
और मैं अब तक यही जानता हूँ,
मेरे पास न चक्र है न माया,
तो मैं वही जीने को बाध्य हूँ,
जो जी रहा हूँ,
बारिश का एक बूँद मात्र,
जो कभी खेत, खलिहान, औषधि, फूल पर,
तो कभी बिष्ठा, जहर,
समसान पर,
न तो मुझे कुछ करने में ही दखता है,
न ना करने में ही ,
बस बनता बिगरता हर छण बदलता ,
यथार्थ सा प्रतीत माया ही दिखता,
चारों ओर तुम्हारा चक्र ही दिखता ,
मुझमे मुझे कुछ भी
नहीं दिखता,
कब दिखोगे तुम मुझमे ?
5 comments:
बड्ड निक लागल....एहि तरहे लिखयत रहु
बहुत खूब क्या लाइनें हैं। पेट की आग इक्षाओं की प्यास, सब कुछ लील लेता है, स्वर्ग और नर्क हर छण, अनंत रूपों में दिखता है, नहीं दिखता तो समय की गति के विरुद्ध अवरुद्ध ठहर टिके रहना.. इन पंक्तियों में बहुत बडा सार छिपा है।
अभी कई जगह पर वर्तनी सुधार की आवश्यकता है। भाव का प्राकट्य कही कही परिलक्षित नहीं होता है।
एक बार समीक्षार्थ मेरी वेबसाइट बखानी मेरे दिल की आवाज मेरी कलम को भी जरूर देखें।
Very Nice Poem
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Good
Very good
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