मेरा लिखना कहीं आपको,
भ्रमित तो नहीं करता,
वैसे ही जैसे,
दर्पण में प्रतिविम्ब,
स्वयं आप अपने ही,
दायें और बाएं में भेद,
नहीं कर पाते,
सापेक्ष के सापेक्ष,
ठहर नहीं पाते,
और निश्कर्ष!
वही होता है,
जो आप देखना चाहते है,
और,
मेरे और आपके बिच की दुरी,
दर्पण और आपके बिच,
की दुरी की तरह,
सदैब बनी रहती है,
और,
हम एक ही विन्दु नहीं देख पते,
आप देखते-समझते कुछ और है,
और
होता कुछ और है,
भ्रम का ना होना,
तभी संभव है,
जब बिचारो में कोई विभेद ना हो,
और,
शव्दों का भाव प्रतिविम्ब ना बनता हो,
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