हे प्रभु,
क्यूँ मेरे साथ ऐसा होता है,
जो गलती मैंने नहीं की,
उसी की सजा भुगतता हूँ,
जबरन मैं लोगों के अहंग का शिकार होता हूँ,
जबरन बिना कारन द्रौपदी की तरह,
सबके बिच मेरी खिल्ली उड़ाई जाती है,
किसी और के कर्मो की सजा,
मुझे भुगतनी होती है,
जबरन मेरा पोस्टमार्टम होता है,
मेरी टंगे तोड़ कर मरहम लगाये जाते हैं,
और उसी अहसान के बदले,
मैं उसका मूल्य चुकाता हूँ,
मुझे नहीं मालूम,
ये कौन सा न्यूटन का नियम है,
जो जबरन फूटबाल की तरह,
लात और दिवार का मार सहता है,
सहज होने का दंड भुगतता है,
सबके असंतोस की आग मुझे,
जबरन जलाती है,
उनके कुंठाओं के निकक्षेप पे,
खड़ा रहना मेरी मजबूरी बन जाती है,
स्नेह, प्रेम, दया, धर्म ने,
मेरे मुंह को सिल दिया है,
आँखों में आंशु सुखा दिए हैं,
कानो को बहरा बना दिया है,
सच सहजता की बेड़ियों में जकड़ा,
खुद के प्रश्न उत्तर में घिरा,
मौन !
पत्थर सा हो गया हूँ,
जो कभी खून में उबाल थी,
वो आंशुओं के भीतर ही घुटन में बहने से,
निस्तेज सा हो गया हूँ,
कर्ण की तरह किसी और के भूल का,
श्राप ढ़ो रहा हूँ,
सीता की तरह बार-बार अग्नि परीक्षा दे रहा हूँ,
आडम्बरी मर्यादाओं के बिच,
घिस-घिस कर रह गया हूँ,
मेरा क्या दोस है,
मैं आज तक समझ नहीं पाया,
तेरा क्या बिधन है,
ये मैं जन नहीं पाया,
क्या सत्य को हरिश्चंद्र की तरह,
सर्बस्व अर्पण करना ही होता है,
क्या स्वप्न भी अपनी मर्यादा तोड़ता है,
बार-बार उसके सिने में त्रिशूल घोंपता है,
रोम-रोम मेरा कस्ट से ब्यथित है,
अब ध्यान का भी ज्ञान नहीं,
चहुँ ओर आग की लपटों में,
खुद को भस्म होते देखता हूँ,
ये कैसा तेरा बिधान है,
अब तो कुछ भी सेस बचा नहीं,
फिर क्यूँ घुटने की भी आजादी नहीं,
सांसो को तू मेरी पकड़े,
ये कैसी नाच नचा रहा,
बिना गलती के ये कौन सा दंड तू मुझे दे रहा,
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