पता नहीं पहले,
कितना मैं डरती थी.
काक्रोच-गिरगिट-चूहे तक से,
घबराती थी.
अब उन्हें कितनी ही बार,
लैब में चीरते-फारते,
डाक्टर जो बन बैठी.
सम्बेदनाये अब,
कर्तब्य की मर्यादा से बंध गयी.
कस्ट, बेदना, टीस की चुभन सहते-सहते,
कोमल ह्रदय अब,
सहनशीलता की कठोर आबरण से ढक गयी.
क्योंकि अब,
काक्रोच-गिरगिट-चूहे नहीं,
मनाबों को आजमानी थी.
आशाओं की दीप तले,
अर्जुन ने लक्ष्य साधा था.
पर!
मुझे तो निराशाओं,
चीत्कारों, कस्ट, बेदानओंकी टीस में,
आशा की दीप जलानी है.
अब,
ह्रदय, आँखें, कान पत्थर सी होने लगी है.
कहीं मानवता की सेवा में,
इन सबको सहते-सहते,
दानव न बन बैठूं,
या फिर,
शिव की तरह पत्थर न बन जाऊं.
या फिर,
मेरी कोमल ह्रदय,
इन कठोर आबरण को को चीर,
गंगा की तरह प्रवाहित होने लगे,
और मैं सदा,
मानव की कस्ट की जलन को,
शीतल करती रहूँ.
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