पता नहीं क्यों ?
मुझे विवाह,
समुद्र मंथन सा लगता है,
जब विचारो के बड़े अंतर,
के वावजूद किसी कारन बस,
संबंध बनते है,
तो लगभग वैसा ही होता है,
एक तरफ सहजता-नम्रता,
एक तरफ क्रोध-अहंकार,
एक तरफ समर्पण,
एक तरफ शोषण,
एक तरफ सच,
और एक तरफ झूठ,
और विडम्बना है,
क्रोध और अहंकार,
अपने ही अग्नि में जलते है,
झुलसते चले जाते है,
और सहजता-नम्रता,
अपने स्वक्ष निर्मल जल से,
पल्लवित होते है,
कमल सा खिलते है,
किसी को विष पान भी करना पड़ता है,
शिव सा होना पड़ता है,
कोई छल से अमृत की कोसिस में,
रहू-केतू सा समय का श्राप ढोता है,
किसी को शेष नाग, मन्दराचल, कच्छप सा,
तटस्त रहकर धर्म की रक्षा करनी होती है,
और वैवाहिक समुद्र मंथन सदा
चलती रहती है,